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गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

पहली जनवरी------ ...डा श्याम गुप्त की कविता....

                                   कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित



पहली जनवरी------ ...डा श्याम गुप्त की कविता....

१. देव घनाक्षरी ( ३३ वर्ण , अंत में नगण )

पहली जनवरी को मित्र हाथ मिलाके बोले ,
वेरी वेरी हेप्पी हो ये न्यू ईअर,मित्रवर |
हम बोले शीत की इस बेदर्द ऋतु में मित्र ,
कैसा नव वर्ष तन काँपे थर थर थर |
ठिठुरें खेत बाग़ दिखे कोहरे में कुछ नहीं ,
हाथ पैर हुए छुहारा सम सिकुड़ कर |
सब तो नादान हैं पर आप क्यों हैं भूल रहे,
अंगरेजी लीक पीट रहे नच नच कर ||


२. मनहरण कवित्त (१६-१५, ३१ वर्ण , अंत गुरु-गुरु.)-मगण |

अपना तो नव वर्ष चैत्र में होता प्रारम्भ ,
खेत बाग़ वन जब हरियाली छाती है |
सरसों चना गेहूं सुगंध फैले चहुँ ओर ,
हरी पीली साड़ी ओड़े भूमि इठलाती है |
घर घर उमंग में झूमें जन जन मित्र ,
नव अन्न की फसल कट कर आती है |
वही है हमारा प्यारा भारतीय नव वर्ष ,
ऋतु भी सुहानी तन मन हुलसाती है ||


३ मनहरण --
 

सकपकाए मित्र फिर औचक ही यूं बोले ,
भाई आज कल सभी इसी को मनाते हैं |
आप भला छानते क्यों अपनी अलग भंग,
अच्छे खासे क्रम में भी टांग यूं अडाते हैं |
हम बोले आपने जो बोम्बे कराया मुम्बई,
और बंगलूरू , बेंगलोर को बुलाते हैं |
कैसा अपराध किया हिन्दी नव वर्ष ने ही ,
आप कभी इसको नज़र में न लाते हैं |



आंग्ल नव वर्ष की शुभकामनाएं ---डा श्याम गुप्त

                                 

कृति, ब्रज बांसुरी की समीक्षा ----हिन्दी प्रचारक पत्रिका, वाराणसी ,---डा श्याम गुप्त ,,,,

                                       कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


          कृति ब्रज बांसुरी की समीक्षा ----हिन्दी प्रचारक पत्रिका, वाराणसी..

                                            

                

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

आखिर कौन हैं हम....डा श्याम गुप्त



                                      
                                  कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित





                       आखिर कौन हैं हम....
               जब भी मैं हरप्पा, सिन्धु/सरस्वती सभ्यता के विवरण पढ़ता हूँ | उस सभ्यता की रहन-सहन, विकासात्मक विवरण, प्राप्त वर्तन, आभूषण, नगरों के स्थापत्य पर विचार करता हूँ तो मुझे लगता है कि यह सब तो भारत में आज भी हैं| बचपन में हम भी मिट्टी –पत्थर के वर्तन प्रयोग में लाते थे, मिट्टी की गाड़ी, खेल खिलौने | कुल्ल्हड़, सकोरे तो अभी तक प्रयोग में हैं,  दीप दिवाली के, लक्ष्मी-गणेश मिट्टी के आदि |  देश में उत्तर से दक्षिण तक, पूर्व से पश्चिम तक आचरण, व्यवहार, रीति-रिवाज़, रहन-सहन, रंग-रूप, वेद-पुराण-शास्त्र, देवी-देवता, पूजा-अर्चना, राम, कृष्ण, शिव, देवी, दुर्गा आदि के एकत्व पर गहराई से विचार करता हूँ तो मुझे संदेह होता है कि हम सब भारतीय सुर हैं या असुर, आर्य हैं या अनार्य ?
         सारे भारत में आचार व्यवहार, आचरण, उठना-बैठना, ओढ़ना पहनना, विविध रीति-रिवाज़  आज भी मौजूद वैदिक कालीन झौंपडियों से लेकर पक्के मकान, अट्टालिकाओं तक, पौराणिक सुर-इन्द्रलोक, देवलोक अधिभौतिक व अध्यात्मिक उपस्थिति एवं उच्चतर भौतिक आसुरी प्रवृत्ति ....सभी कुछ गद्दमड्ड ....आखिर कौन हैं हम सब ? तुलसीदास कह गए हैं कि --
“हरित भूमि तृण संकुलि समुझि परहि नहिं पंथ |
जिमि पाखण्ड विवाद तें लुप्त होंहि सदग्रंथ | “
       पुरस्कार लौटाना, पूजा अर्चना पर विवाद, असहिष्णुता विवाद, धार्मिक, पूजा-पाठ मत-मतान्तर विवाद, राजनैतिक विवाद, उत्तर-दक्षिण, आर्य-अनार्य, सुर-असुर विवाद आदि सब यही तो पाखण्ड विवाद है जिनके कारण यह भ्रमात्मक स्थितियां उत्पन्न होती हैं |
       आदितम साहित्य ऋग्वेद में यम-यमी प्रकरण में यमी द्वारा यम से सान्निध्य निवेदन पर यम का कथन---न ते सखा सख्यं वष्टयेतत्सलक्ष्माय द्वि पुरुषा भवेत् |
                 महिष्णुमासो असुरस्य वीरा दिविध्वरि उर्विया परिख्यनि ||(१०/१०/८८६७)
   --हे यमी हम भाई-बहन हैं अतः आप असुरों के वीर पुत्रों( अन्य शक्ति संपन्न व्यक्तियों ) से जो सर्वत्र विचरण करते है संपर्क करें |..अर्थात सुर-असुरों में व्यवहारगत कोइ अंतर नहीं था| सभी एक ही समाज के लोग थे|
अनाचरण रत सरयू पार के आर्य राजाओं को भी इंद्र ने तत्काल मार दिया | सुदास का दस वर्षीय युद्ध भी आर्यों-आर्यों में ही था | यहाँ तक कि कृष्ण को भी ऋग्वेद में कृष्णासुर कहा गया है ...अव दृप्शो अन्शुमतीस तिष्ठ: दियान: कृष्णो दशभि सहस्त्रै |
    आवत्तमिन्द्र: शच्याध्मंतमय स्नेह्तीर्णनृमणा अघंत || (५/३३ ) 
---त्वरित, गतिशील व अन्शुमती ( यमुना) के तट पर विद्यमान मनुष्यों को आकर्षित करने में सक्षम दश सहस्र सेना सहित, कृष्णासुर को इन्द्रदेव ने प्रत्याक्रमण करके पराजित किया | हो सकता है कि कृष्ण व इंद्र, कृषक एवं अन्य श्रेष्ठ-देवीय समाज के पदेन नेतृत्वकर्ता हों | महर्षि कश्यप पुत्र देव-दनुज, ऋषिपुत्र राक्षसराज रावण, हिरण्यकश्यपु पुत्र विष्णु भक्त प्रहलाद व इंद्र पदवी धारक दानवाधिपति राजा बलि—जिसका नाम आज भी कथा-पूजन आदि में..’येन बद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो महावली ...’ कह कर समस्त भारत में लिया जाता है जो सुर-असुरों के अंतिम समन्वय के साक्षी बने | बलि का पाताल भेजना, अमेरिका को निष्क्रमण ही है, जिसके प्रपोत्र वाणासुर की पुत्री उषा का विवाह श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध से जगविदित घटनाक्रम है | अर्जुन पत्नी नागकन्या उलूपी, भीम पत्नी राक्षसी हिडिम्बा, कैकयकुमारी अयोध्या की रानी, सुदूर कूचबिहार की पुत्री जयपुर की महारानी |

        यहाँ तक कि पाश्चात्य जगत में, विश्व भर में, अफ्रीका में, पाताल लोक अमेरिका में सभी स्थानों, देशों संस्कृतियों में शिव एवं शिवलिंग की उपस्थिति, अमेरिका एवं अफ्रीका व चीन, अरब में शिवलिंग की उपष्थिति, शक्ति व योनि पूजा, विभिन्न नामांतरों से मनु- नूह-नोआ, जलप्रलय जैसी एतिहासिक घटनाएँ, ऋषियों, मुनियों, देवों,स्थानों के भारतीय पौराणिक नाम, पुरा साहित्य व भाषाओं की आदि-भाषा संस्कृत से समानता आदि पर गहनता से विचार करने पर सर्वविश्वीय एकात्मकता का बोध होता है |
     
       वस्तुतः हम सब भारतीय एक ही मूल मानव समाज की इकाइयां हैं | भारत में नर्मदा घाटी में एवं मानसरोवर क्षेत्र में उत्पन्न व सप्तसिंधु- सरस्वती क्षेत्र में विक्सित व उन्नत मानव, दक्षिण के देवता शिव जो महासमन्वयक की भूमिका में थे और देवाधिदेव कहलाये एवं उत्तर के इंद्र-विष्णु आदि देवों द्वारा समन्वय करके एक अनन्यतम व श्रेष्ठतम संस्कृति का निर्माण किया जो सनातन संस्कृति कहलाई | जिसके साथ मानव सुदूर भागों में समस्त विश्व में फैले एवं अपने मूल स्थान से दूर होते हुए देश, काल, जलवायु, परिष्थिति के अनुसार आचार व्यवहार में परिवर्तन होते गए | तदुपरांत राजनीतिक विकास, जन्संख्यावर्धन, विचारगत भिन्नताओं, कौटुम्बिक-कबीलाई मतभेद व श्रेष्ठता मापदंड, विवेक- आचरणगत शुचिता के अनुसार सुर-असुर, आर्य-अनार्य आदि श्रेणियां बनी एवं बाद में वर्ग व जातियां |  
       आखिर कौन हैं हम ...हम क्या समस्त विश्व ही –
‘हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा  एवं ...
‘हमारी जन्म भूमि है यहीं, कहीं से हम थे आये नहीं |’ ..तो क्या मतभिन्नता, क्या मत-मतान्तर, धर्मान्तर, क्या सुर-असुर, क्या आर्य-अनार्य, क्या उत्तर-दक्षिण क्या जाति-प्रजाति ...
हम एक थे, एक हैं एक ही रहेंगे |
मध्य अमेरिका के द लॉस्ट सिटी ऑफ़ मंकी गॉड में गदा सहित हनुमान एवं नीचे उनकी गदा


६००० वर्ष प्राचीन शिवलिंग--अफ्रीका 
अफगान शासक द्वारा पूजित विष्णु


रविवार, 22 नवंबर 2015

माननीय मुलायम सिंह यादव जी को जन्मदिवस की शुभकामनाएं ...डा श्याम गुप्त

                                          कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


माननीय मुलायम सिंह यादव जी को.....

                                        जन्मदिवस की शुभकामनाएं


                               गाँव गाँव हर शहर शहर की गली गली में डोलेंगे |
                    फ़ैल रहा जो जहर देश में उसमें अमृत घोलेंगे |
                     हर मज़हब के रहने वाले एक सूत्र में बंधे रहें |
                     कन्या से कश्मीर की घाटी तक हम हल्ला बोलेंगे ||

                                                                                       ---डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’


           Drshyam Gupta's photo. 

                               परम आदरणीय माननीय मुलायम सिंह यादव जी पूर्व मुख्यमंत्री उत्तरप्रदेश एवं पूर्व रक्षामंत्री भारत सरकार को उनके ७७वें जन्मदिवस पर बधाई एवं शत शत अभिनन्दन | वे शतायु होकर प्रदेश, देश-राष्ट्र, हिन्दी भाषा व साहित्य की अहर्निश सेवा करते रहें, ऐसी हमारी कामना है |
                                                           -----डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य                                                                     दिनांक -२२-११-२०१५ई.            

 
सद्भावी .... 

Drshyam Gupta's photo. 
साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’-संस्थापक अध्यक्ष, अखिल भारतीय अगीत परिषद्, राजाजी पुरम , लखनऊ 


Drshyam Gupta's photo. 
महाकवि डा श्याम गुप्तसदस्य, अखिल भा.अगीत परिषद् , लखनऊ

 
Drshyam Gupta's photo. 
समीक्षक श्री पार्थोसेन - सदस्य अखिल भा.अगीत परिषद् , लखनऊ

रविवार, 25 अक्तूबर 2015

तुलसी-रामायण- रामचरित मानस की भाषा ...डा श्याम गुप्त


                             कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


           तुलसी-रामायण- रामचरित मानस की भाषा ...

                             


                 
         बचपन से लेकर इंटर कक्षाओं तक हम महाकवि तुलसीदास व रामचरितमानस को पढ़ते रहे हैं| हिन्दी भाषा व साहित्य की परीक्षाओं हेतु तुलसी महत्वपूर्ण कवि हुआ करते थे, आज भी हैं| ५०-६० वर्षों से हम उन्हें सदा हिन्दी भाषा के अग्रगण्य विश्वकवि के रूप में पढ़ते-लिखते रहे हैं | अब मुझे सुनने –पढ़ने को मिल रहा है कि तुलसी की रामायण -रामचरित मानस- की भाषा अवधी है | ये अवधी भाषा कहाँ से आई |
     रामचरित मानस की लोकप्रियता अद्वितीय है| यह हिन्दी भाषा का कालजयी एवं विश्व-प्रसिद्द ग्रन्थ है | परंतु आजकल शायद लगभग १५-२० वर्षों से  इस ग्रंथ के किसी न किसी पहलू को लेकर विवाद उठने लगे हैं। रामचरितमानस की भाषा के बारे में भी आज के विद्वान एकमत नहीं हैं। कोई इसे अवधी मानता है तो कोई भोजपुरी। कुछ लोक मानस की भाषा अवधी और भोजपुरी की मिलीजुली भाषा मानते हैं। मानस की भाषा बुंदेली मानने वालों की संख्या भी कम नहीं है।
       मानस में संस्कृत, फारसी और उर्दू के शब्दों की भरमार है | तुलसीदास अवधी और ब्रजभाषा में बराबर निष्णात थे। उन्होंने संस्कृत शब्दों को गाँवों में प्रचलित किया एवं देसी शब्दों को को पढ़े-लिखे लोगों के बीच लोकप्रिय बनाया। हिन्दी भाषा व साहित्य का इतिहास उनका सदैव ऋणी रहेगा |
        वस्तुतः तुलसीदास ने संस्कृत, खड़ीबोली, पूर्वी हिन्दी --अवधी, भोजपुरी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, वैसवारी, कन्नौजी, बघेली, मागधी, कौशली और पश्चिमी हिन्दी ब्रजभाषा व उत्तर-पश्चिम की भारतीय भाषाओं के मिले-जुले स्वरूप को प्रचलित किया। इसके साथ ही उन्होंने फारसी –उर्दू और अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया। इस प्रकार के प्रयोगों के उदाहरण बिरले ही मिलते हैं। तुलसीदास ने भाषा को नया स्वरूप दिया। यह अवधी नहीं अपितु वही भाषा थी जो प्राकृत से शौरसेनी अपभ्रंश होते हुए, १५ दशकों तक समस्त भारत की साहित्यिक भाषा रही ब्रजभाषा के नए रूप मागधी, अर्धमागधी आदि से सम्मिश्र होकर आधुनिक हिन्दी की ओर बढ़ रही थी जिसे ‘भाखा’ कहा गया एवं जो आधुनिक हिन्दी ‘खड़ीबोली’ का पूर्व रूप थी | काशी पंडितों द्वारा संस्कृत में निष्णात होते हुए भी संस्कृत के स्थान पर भाषा या ‘भाखा’ में रामचरित मानस लिखने पर कठोर आपत्ति की थी.....’कहा भाखा में लिखत हौ पंडित हौ संस्कृत में लिखौ ‘....यह जग प्रसिद्द घटना है | इन्हीं आपत्तियों के चलते काशी में तुलसीदास व मानस के बारे में विभिन्न घटनाएँ हुईं |
       चित्रकूट स्थित अंतरराष्ट्रीय मानस अनुसंधान केन्द्र के प्रमुख स्वामी रामभद्राचार्य के अनुसार रामचरितमानस के वर्तमान संस्करणों में कर्तृवाचक उकार शब्दों की बहुलता हैं। उन्होंने इसे अवधी भाषा की प्रकृति के विरुद्ध बताया है। इसी प्रकार उन्होंने उकार को कर्मवाचक शब्द का चिन्ह मानना भी अवधी भाषा के विपरीत बताया है। उकारांत कर्तृवाचक शब्दों के प्रयोग भी अवधी भाषा के विरुद्ध है।
        तुलसीदास 'ग्राम्य गिरा' के पक्षधर थे। परन्तु वे जायसी की गँवारू भाषा अवधी के पक्षधर नहीं थे। तुलसीदास की तुलना में जायसी की अवधी अधिक शुद्ध है तुलसीदास के अन्य अनेक ग्रन्थों में पार्वतीमंगलतथा जानकीमंगलअच्छी अवधी में है। संस्कृत के विद्वान् होने के कारण संस्कृत व आधुनिक शुद्ध हिन्दी खडीबोली का प्रयोग भी स्वाभाविक रूप में हुआ है |  स्वामी रामभद्रचार्य ने 'न्ह' के प्रयोग को भी अनुचित और अनावश्यक बताया है। उनके अनुसार नकार के साथ हकार जोड़ना ब्रजभाषा का प्रयोग है अवधी का नहीं। स्वामीजी के अनुसार मानस की उपलब्ध प्रतियों में तुम के स्थान पर 'तुम्ह' और 'तुम्हहि' शब्दों के जो प्रयोग मिलते हैं वे अवधी में नहीं होते | इसी प्रकार '' न तो प्राचीन अवधी की ध्वनि है और न ही आधुनिक अवधी की।
       रामचरितमानस की तुलसीदास द्वारा लिखित कोई प्रति उपलब्ध नहीं है। मानस की रचना आज से लगभग ५०० वर्ष पहले की गई थी। वह भारत भर में हिन्दी साहित्य में ब्रजभाषा का काल था जो भाखा के रूप में हिन्दी का रूप लेती जारही थी | निम्न चौपाइयों की भाषा देखिये लगभग शुद्ध हिन्दी है --

“सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू।
सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचर नायक।“


धीरज धर्म मित्र अरु नारी | आपत काल परखिये चारी |
कीरति भनिति भूति भलि सोई \ सुरसरि सम सब कहं हित होई |

            प्रश्न यह है कि अवधी का उद्गम किस प्राकृत से है। अवधी उत्तर भारत में बोले जाने वाली भारतीय-आर्य वर्ग की पूर्वी हिन्दी शाखा की एक बोली है। अवधी शब्द से बोध होता है कि यह अवधमात्र की बोली है, किन्तु यह एक ओर अवध के कुछ क्षेत्रों में (जैसे हरदोई जिले में अथवा खीरी और फैजाबाद के कुछ अंशो में) नही बोली जाती है और दूसरी ओर अवध के बाहर कुछ जिलो में (जैसे फतेहपुर, इलाहाबाद, जौनपुर और मिर्जापुर में) बोली जाती है। अवधी के पश्चिम में वे बोलियां  है जिनका सम्बन्ध शौरसेनी प्राकृत से है कन्नौजी और बुन्देली और पूर्व में बिहारी बोलियां है भोजपुरी आदि जिनका सम्बन्ध मागधी से है। मध्य-पश्चिम भागों पर कन्नौजी का प्रभाव है| दक्षिण की ओर कोसल का विस्तार, अर्थात दक्षिण कोसल है जहाँ  बघेली और छत्तीसगढ़ी बोली जाती है, जो मुस्लिमकाल में विशेषतया गोंडवाना के नाम से ज्ञात और वन्य गोंड-भील जातियों से बसा हुआ था। अवधी के उद्गम का कोई इतिहास ही नहीं प्राप्त होता |
      पूर्वीका शब्दशः अर्थ है, पूर्व प्रदेशीय और यह कभी अवधी के लिए और कभी भोजपुरी के लिए प्रयुक्त होता रहा है। है। कोशली कोसल राज्य की भाषा का नाम था | बैसवाड़ी बैसवाड़ाके लिए प्रयुक्त होता है जिसके अन्र्तगत उन्नाव, लखनऊ, रायबरेली और फतेहपुर जिलों के अंश आते है। तुलसीदास ने अयोध्या के लिए अवध शब्द प्रयुक्त किया और लालदास आदि ने इसे अउध कहा है। अवध का सम्बंध प्राचीन नगरी अयोध्या से है| जो कि मुसलमानी काल में पर्याप्त महत्वपूर्ण हुई। मिर्जापुर जिले के दक्षिण पूर्वी त्रिकोण में -सोनपार प्रदेश में अवधी भोजपुरी से मिश्रित बोली जाती है। सोनपार के और दक्षिण में छत्तीसगढ़ी की एक बोली सरगुजिआ मिलती है।
       अर्थात अवधी भाषा का अपना मुख्य क्षेत्र केवल अवध ही है| इसका कोई प्राचीन इतिहास भी नहीं है | वास्तव में उत्तर-मुगल काल में फैजाबाद तथा लखनऊ का बड़ा महत्व रहा है। दिल्ली दरवार टूटने के पश्चात मुगलिया नबावी संस्कृति लखनऊ की ओर बढी | अवध के नवाब अपनी संस्कृति, खुशमिजाजी और शान-शौकत के लिए प्रसिद्ध रहे है। अतः अवधी भाषा का प्रचार–प्रसार होने लगा |
     अतः मानस की भाषा अवधी नहीं अपितु १५ दशकों तक समस्त भारत की साहित्यिक भाषा रही  ब्रजभाषा के नए रूप मागधी, अर्धमागधी एवं कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, पंजाब से लेकर बंगाल तक अन्य पुरानी व नयी भारतीय भाषाओं आदि से सम्मिश्र होकर आधुनिक हिन्दी की ओर बढ़ रही भाषा थी जिसे ‘भाखा’ कहा गया एवं जो आधुनिक हिन्दी ‘खड़ीबोली’ का पूर्व रूप थी | तुलसी हिन्दी को जन-मानस में प्रतिष्ठित करना चाहते थे | अतः उन्होंने मानस की भाषा हिन्दी रखी | इसीलिये उन्होंने अपने अन्य ग्रन्थ शुद्ध अवधी ( रामलला नहछू, जानकी मंगल आदि ) व ब्रजभाषा ( कवितावली, विनयपत्रिका आदि ) में लिखे |
      बांदा में जन्मे, काशी में पढ़े-लिखे व अयोध्या में स्थित होकर मानस रचने वाले गोस्वामी तुलसीदास दोनों मूल भाषाओं पूर्वी व पश्चिमी हिन्दी में पारंगत थे अतः वे मूलतः हिन्दी के कवि हैं| आज भाषा का यह प्रश्न हिन्दी के विरुद्ध एक षडयंत्र की भांति लगता है जो हिन्दी की बोलियों में मत-भिन्नता उत्पन्न करके हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयत्न को दूर तक टालने का कुप्रयास है |

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

कुछ शायरी की बात होजाए ---डा श्याम गुप्त ...

                                            कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित

Drshyam Gupta's photo.
                     










                     
                                मेरी सद्य प्रकाशित कृति--कुछ शायरी की बात होजाए

बात मेरी न सुने सारा ज़माना चाहे
चंद जाहिद तो सुनेंगे औ सुधर जायेंगे | ---ड़ा श्याम गुप्त

  ----आभार---
                            उन सभी नामचीन्ह, गुमनाम, अनाम, बेनाम शायरों-शायराओं, उस्तादों, ग़ज़लगो, गज़लनवीसों, ग़ज़लकारों का जिनकी शायरी व गज़लें सुनते-पढ़ते शायरी व ग़ज़ल में रूचि, समझ व कहने-लिखने की इच्छा जागृत हुई |                                          ----- ड़ा श्याम गुप्त ..
 
------मूल कथ्य -----

-------जब मैंने विभिन्न शायरों की शायरी—गज़लें व नज्में आदि सुनी-पढीं व देखीं विशेषतया गज़ल...जो विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया, बिना रदीफ, वज्न आदि का उठना गिरना आदि ...तो मुझे ख्याल आया बस लय व गति से गाते चलिए, गुनगुनाते चलिए गज़ल बनती चली जायगी | कुछ फिसलती गज़लें होंगी कुछ भटकती ग़ज़ल| हाँ लय गति यति युक्त गेयता व भाव-सम्प्रेषणयुक्तता तथा सामाजिक-सरोकार युक्त होना चाहिए और आपके पास भाषा, भाव, विषय-ज्ञान व कथ्य-शक्ति होना चाहिए|
बस गाते-गुनगुनाते जो गज़ले-नज्में आदि बनतीं गयीं... जिनमें ‘त्रिपदा-अगीत गज़ल’, अति-लघु नज़्म आदि कुछ नए प्रयोग भी किये गए है.. यहाँ पेश हैं...मुलाहिजा फरमाइए ........
                                                                                                         ------डा श्याम गुप्त
--------परम सत्ता नमन ---- ( वंदना )

बड़े बड़ों के ढीले सुर - तेवर होजाते हैं |
क्या तिनका क्या गर्वोन्नत गिरि नत होजाते हैं |

कुछ भी तेरे हाथ नहीं रे नर तू फिर क्यों ऐंठा,
उस असीम के आगे अबके सिर झुक जाते हैं |

हमने बड़े बड़े बलशाली पर्वत-गिरि देखे ,
बरसे पानी कड़के बिजली सब ढह जाते हैं|

आंधी बिजली तूफानों ने तेवर खूब दिखाए
मन की दृढ़ता के आगे वे क्या कर पाते हैं |

चाहे जितना राग-द्वेष , छल-छंद करे कोई
सत्य राह के आगे सब नत सिर होजाते हैं |

तूफानों के बीच भंवर में नैया डगमग डोले
मांझी के मज़बूत इरादे खेकर ले जाते हैं|

सत पौरुष बल मन की दृढ़ता, अपने निज पे भरोसा
हो ईश्वर पर श्रृद्धा तब ये गुण मिल पाते हैं |

वही भरोसा बल है सत है वही आत्मविश्वास
उसे भूलते अहं-भाव रत, कष्ट उठाते हैं|

जिसके आगे बड़े बड़ों की अकड नहीं चल पाए ,
श्याम' परमसत्ता के आगे शीश झुकाते हैं||

बुधवार, 29 जुलाई 2015

बात शायरी की ---- मेरी नवीनतम पुस्तक----- कुछ शायरी की बात होजाए ....ड़ा श्याम गुप्त....

                                          कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित

                            मेरी नवीनतम पुस्तक----- कुछ शायरी की बात होजाए ....

                                  ---- बात शायरी की ----आत्म कथ्य --- ड़ा श्याम गुप्त....

--------कविता, काव्य या साहित्य किसी विशेष, कालखंड, भाषा, देश या संस्कृति से बंधित नहीं होते | मानव जब मात्र मानव था जहां जाति, देश, वर्ण, काल, भाषा, संस्कृति से कोई सम्बन्ध नहीं था तब भी प्रकृति के रोमांच, भय, आशा-निराशा, सुख-दुःख आदि का अकेले में अथवा अन्य से सम्प्रेषण- शब्दहीन इंगितों, अर्थहीन उच्चारण स्वरों में करता होगा |
---------आदिदेव शिव के डमरू से निसृत ध्वनि से बोलियाँ, अक्षर, शब्द की उत्पत्ति के साथ ही श्रुति रूप में कविता का आविर्भाव हुआ| देव-संस्कृति में शिव व आदिशक्ति की अभाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह की सर्वप्रथम कथा के उपरांत देव-मानव या मानव संस्कृति की, मानव इतिहास की सर्वप्रथम भाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह गाथा ‘उर्वशी–पुरुरवा’ की है | कहते हैं कि सुमेरु क्षेत्र, जम्बू-द्वीप, इलावर्त-खंड स्थित इन्द्रलोक या आज के उजबेकिस्तान की अप्सरा ( बसरे की हूर) उर्वशी, भरतखंड के राजा पुरुरवा पर मोहित होकर उसकी पत्नी बनी जो अपने देश से उत्तम नस्ल की भेड़ें तथा गले के लटकाने का स्थाली पात्र, वर्फीले देशों की अंगीठी –कांगड़ी- जो गले में लटकाई जाती है, लेकर आयी। प्रणय-सुख भोगने के पश्चात उर्वशी …गंधर्वों अफरीदियों के साथ अपने देश चली गई और पुरूरवा उसके विरह में छाती पीटता रोता रहा, विश्व भर में उसे खोजता रहा। उसका विरह-रूदन गीत ऋग्वेद के मंत्रों में है, यहीं से संगीत, साहित्य और काव्य का प्रारम्भ हुआ।

-------अर्वन देश (घोड़ों का देश) अरब तथा फारस के कवियों ने इसी की नकल में रूवाइयां लिखीं एवं तत्पश्चात ग़ज़ल आदि शायरी की विभिन्न विधाएं परवान चढी जिनमें प्रणय भावों के साथ-साथ मूलतः उत्कट विरह वेदना का निरूपण है ।
--------शायरी ईरान होती हुई भारत में उर्दू भाषा के माध्यम से आयी, प्रचलित हुई और सर्वग्राही भारतीय संस्कृति के स्वरूपानुसार हिन्दी ने इसे हिन्दुस्तानी-भारतीय बनाकर समाहित कर लिया| आज देवनागरी लिपि में उर्दू के साथ-साथ हिन्दुस्तानी, हिन्दी एवं अन्य सभी भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में भी शायरी की जा रही है |

-------- शायरी अरबी, फारसी व उर्दू जुबान की काव्य-कला है | इसमें गज़ल, नज़्म, रुबाई, कते व शे’र आदि विविध छंद व काव्य-विधाएं प्रयोग होती हैं, जिनमें गज़ल सर्वाधिक लोकप्रिय हुई | गज़ल व नज़्म में यही अंतर है कि नज़्म हिन्दी कविता की भाँति होती है | नज़्म एक काव्य-विषय व कथ्य पर आधारित काव्य-रचना है जो कितनी भी लंबी, छोटी व अगीत की भांति लघु होसकती है एवं तुकांत या अतुकांत भी | गज़ल मूलतः शे’रों (अशार या अशआर) की मालिका होती है और प्रायः इसका प्रत्येक शे’र विषय–भाव में स्वतंत्र होता है |
-------- नज़्म विषयानुसार तीन तरह की होती हैं ---मसनवी अर्थात प्रेम अध्यात्म, दर्शन व अन्य जीवन के विषय, मर्सिया ..जिसमें दुःख, शोक, गम का वर्णन होता है और कसीदा यानी प्रशंसा जिसमें व्यक्ति विशेष का बढ़ा-चढा कर वर्णन किया जाता है | एक लघु अतुकांत नज्म पेश है...
सच,
यह तुलसी कैसी शांत है
और कश्मीर की झीलें
किस-किस तरह
उथल-पुथल होजाती हैं
और अल्लाह
मैं ! ...........मीना कुमारी ...
------ रुबाई मूलतः अरबी फारसी का स्वतंत्र ..मुक्तक है जो चार पंक्तियों का होता है पर वो दो शेर नहीं होते इनमें एक ही विषय व भाव होता है और कथ्य चौथे मिसरे में ही मुकम्मिल व स्पष्ट होता है | तीसरे मिसरे के अलावा बाकी तीनों मिसरों में काफिया व रदीफ एक ही तुकांत में होते हैं तीसरा मिसरा इस बंदिश से आज़ाद होता है | परन्तु रुबाई में पहला –तीसरा व दूसरा –चौथा मिसरे के तुकांत भी सम होसकते हैं और चारों के भी | फारसी शायर ...उमर खय्याम की रुबाइयां विश्व-प्रसिद्द हैं |..उदाहरण- एक रुबाई...--. “इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
अपने ज़ज्वात की हसीं तहरीर |
किस मौहब्बत से तक रही है मुझे,
दूर रक्खी हुई तेरी तस्वीर || “ .... निसार अख्तर
-------- कतआ भी हिन्दी के मुक्तक की भांति चार मिसरों का होता है, यह दो शे’रों से मिलकर बनता है | इसमें एक मुकम्मिल शे’र होता है..मतला तथा एक अन्य शे’र होता है| जब शायर ..एक शेर में अपना पूरा ख्याल ज़ाहिर न कर पाए तो वो उस ख्याल को दुसरे शेर से मुकम्मल करता है । कतआ शायद उर्दू में अरबी-फारसी रुबाई का विकसित रूप है| अर्थात दो शे’रों की गज़ल| एक उदाहरण पेश है....--
दर्दे दिल को जो जी पाये |
जख्मे-दिल को जो सी पाए |
दर्दे ज़माँ ही ख़्वाब है जिसका
खुदा भी उस दिल में ही समाये ||” ... डा श्याम गुप्त
--------- शे’र दो पंक्तियों की शायरी के नियमों में बंधी हुई वह रचना है जिसमें पूरा भाव या विचार व्यक्त कर दिया गया हो | 'शेर' का शाब्दिक अर्थ है --'जानना' अथवा किसी तथ्य से अवगत होना और शायर का अर्थ जानने वाला ...अर्थात ‘कविर्मनीषी स्वयंभू परिभू ...क्रान्तिदर्शी ...कवि | इन दो पंक्तियों में शायर या कवि अपने पूरे भाव व्यक्त कर देता है ये अपने आप में पूर्ण होने चाहिए उन पंक्तियों के भाव-अर्थ समझाने के लिए किन्हीं अन्य पंक्ति की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | गज़ल शे’रों की मालिका ही होती है | अपनी सुन्दर तुकांत लय, गति व प्रवाह तथा प्रत्येक शे’र स्वतंत्र व मुक्त विषय-भाव होने के कारण के कारण साथ ही साथ प्रेम, दर्द, साकी–ओ-मीना कथ्यों व वर्ण्य विषयों के कारण गज़ल विश्वभर के काव्य में प्रसिद्द हुई व जन-जन में लोकप्रिय हुई | ऐसा स्वतंत्र शे’र जो तन्हा हो यानी किसी नज़्म या ग़ज़ल या कसीदे या मसनवी का पार्ट न हो ..उसे फर्द कहते हैं |

--------- गज़ल दर्दे-दिल की बात बयाँ करने का सबसे माकूल व खुशनुमां अंदाज़ है | इसका शिल्प भी अनूठा है | नज़्म व रुबाइयों से जुदा | इसीलिये विश्व भर में जन-सामान्य में प्रचलित हुई | हिन्दी काव्य-कला में इस प्रकार के शिल्प की विधा नहीं मिलती | मैं कोई शायरी व गज़ल का विशेषज्ञ ज्ञाता नहीं हूँ | परन्तु हम लोग हिन्दी फिल्मों के गीत सुनते हुए बड़े हुए हैं जिनमें वाद्य-इंस्ट्रूमेंटेशन की सुविधा हेतु गज़ल व नज़्म को भी गीत की भांति प्रस्तुत किया जाता रहा है | उदाहरणार्थ - फिल्मे गीतकार साहिर लुधियानवी का गीत/ग़ज़ल......
संसार से भागे फिरते हो संसार को तुम क्या पाओगे।
इस लोक को भी अपना न सके उस लोक को में भी पछताओगे।
ये पाप है क्या ये पुण्य है क्या रीतों पर धर्म की मोहरें हैं
हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे। ---

गज़ल का मूल छंद शे’र या शेअर है | शेर वास्तव में ‘दोहा’ का ही विकसित रूप है जो संक्षिप्तता में तीब्र व सटीक भाव-सम्प्रेषण हेतु सर्वश्रेष्ठ छंद है | आजकल उसके अतुकांत रूप-भाव छंद ..अगीत, नव-अगीत व त्रिपदा-अगीत भी प्रचलित हैं| अरबी, तुर्की,फारसी में भी इसे ‘दोहा’ ही कहा जाता है व अंग्रेज़ी में कसीदा मोनो राइम( Quasida mono rhyme)| अतः जो दोहा में सिद्धहस्त है अगीत लिख सकता है वह शे’र भी लिख सकता है..गज़ल भी | शे’रों की मालिका ही गज़ल है |
छंदों व गीतों के साथ-साथ दोहा व अगीत-छंद लिखते हुए व गज़ल सुनते, पढते हुए मैंने यह अनुभव किया कि उर्दू शे’र भी संक्षिप्तता व सटीक भाव-सम्प्रेषण में दोहे व अगीत की भांति ही है और इसका शिल्प दोहे की भांति ...अतः लिखा जा सकता है, और नज्में तो तुकांत-अतुकांत गीत के भांति ही हैं, और गज़लों–नज्मों का सिलसिला चलने लगा |

----------- भारत में शायरी व गज़ल फारसी के साथ सूफी-संतों के प्रभाववश प्रचलित हुई | मेरा उर्दू भाषा ज्ञान उतना ही है जितना किसी आम उत्तर-भारतीय हिन्दी भाषी का | मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा (उ.प्र.) मेरा जन्म व शिक्षा स्थल रहा है जहां की सरकारी भाषा अभी कुछ समय तक भी उर्दू ही थी | अतः वहाँ की जन-भाषा व साहित्य की भाषा भी उर्दू हिन्दी बृज मिश्रित हिन्दी है | इसी क्षेत्र के अमीर खुसरो ने सर्वप्रथम उर्दू व हिन्दवी में मिश्रित गज़ल-नज्में आदि कहना प्रारम्भ किया | अतः इस कृति में अधिकाँश गज़लें, नज़्म, कते आदि उर्दू-हिन्दी मिश्रित व कहीं-कहीं बृजभाषा मिश्रित हैं | कहीं-कहीं उर्दू गज़लें व हिन्दी गज़लें भी हैं |
मुझे गज़ल आदि के शिल्प का भी प्रारंभिक ज्ञान ही है | जब मैंने विभिन्न शायरों की शायरी—गज़लें व नज्में आदि सुनी-पढीं व देखीं विशेषतया गज़ल...जो विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया, बिना रदीफ, वज्न आदि का उठना गिरना आदि ...तो मुझे ख्याल आया बस लय व गति से गाते चलिए, गुनगुनाते चलिए गज़ल बनती चली जायगी | कुछ फिसलती गज़लें होंगी कुछ भटकती ग़ज़ल| हाँ लय गति यति युक्त गेयता व भाव-सम्प्रेषणयुक्तता तथा सामाजिक-सरोकार युक्त होना चाहिए और आपके पास भाषा, भाव, विषय-ज्ञान व कथ्य-शक्ति होना चाहिए| यह बात गणबद्ध छंदों के लिए भी सच है | तो कुछ शे’र आदि जेहन में यूं चले आये.....
“मतला बगैर हो गज़ल, हो रदीफ भी नहीं,
यह तो गज़ल नहीं, ये कोइ वाकया नहीं |
लय गति हो ताल सुर सुगम, आनंद रस बहे,
वह भी गज़ल है, चाहे कोई काफिया नहीं | “

बस गाते-गुनगुनाते जो गज़ले-नज्में आदि बनतीं गयीं... जिनमें ‘त्रिपदा-अगीत गज़ल’, अति-लघु नज़्म आदि कुछ नए प्रयोग भी किये गए है.. यहाँ पेश हैं...मुलाहिजा फरमाइए ........
------डा श्याम गुप्त
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